घर का भेदी लंका ढाये।
सार छंद:--
कोई अपना राह रोकता,मंजिल कैसे जायें?
घर का भेदी लंका ढाये,जीत कहां से पायें?
घर का भेदी लंका ढाये,जीत कहां से पायें?
हुनर भरा अपने भीतर भी,कहिये किसे दिखाये?
खड़ा नही वो अपने पीछे,जिनको हुनर बताये।।
हौसला पस्त पड़ जाता है,मंजिल है खो जाता।
साथ नही मिलता अपनो का,किस्मत है सो जाता।।
खेत मुहानी अपने फोरे,कैसे फसल पकाये?
घर का भेदी लंका ढाये,जीत कहां से पायें?
खड़ा नही वो अपने पीछे,जिनको हुनर बताये।।
हौसला पस्त पड़ जाता है,मंजिल है खो जाता।
साथ नही मिलता अपनो का,किस्मत है सो जाता।।
खेत मुहानी अपने फोरे,कैसे फसल पकाये?
घर का भेदी लंका ढाये,जीत कहां से पायें?
भरा पड़ा इतिहास हमारा,भेदी जयचन्दो से।
कैसे रण जीते रणवीरा,घर के छलछन्दो से।।
बढ़कर दुश्मन ललकार रहा,हम हांथ बांध बैठे।
चढ़ छानी होरा भून रहा,हम मौन साध बैठे।।
भेद भरम के गढ्ढे गढ़ के,प्रेम नही भरवाये।
घर का भेदी लंका ढाये,जीत कहां से पायें?
कैसे रण जीते रणवीरा,घर के छलछन्दो से।।
बढ़कर दुश्मन ललकार रहा,हम हांथ बांध बैठे।
चढ़ छानी होरा भून रहा,हम मौन साध बैठे।।
भेद भरम के गढ्ढे गढ़ के,प्रेम नही भरवाये।
घर का भेदी लंका ढाये,जीत कहां से पायें?
अगर न होता घर मे भेदी,विजयी निश्चित होता।
फिर धोखे का दंश न होता,फिर विश्वास न रोता।।
सपने सारे पूरन होते,खिला खिला मन होता।
साहस बरसाता नील गगन,मन अन्तर्मन भिगोता।।
दुष्प्रभाव भेदी का कहिये,सोंच धरे रह जाये।
घर का भेदी लंका ढाये,जीत कहां से पायें?
फिर धोखे का दंश न होता,फिर विश्वास न रोता।।
सपने सारे पूरन होते,खिला खिला मन होता।
साहस बरसाता नील गगन,मन अन्तर्मन भिगोता।।
दुष्प्रभाव भेदी का कहिये,सोंच धरे रह जाये।
घर का भेदी लंका ढाये,जीत कहां से पायें?
रचना:--सुखदेव सिंह अहिलेश्वर"अंजोर"
गोरखपुर,कवर्धा
9685216602
गोरखपुर,कवर्धा
9685216602
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें