मंगलवार, 6 दिसंबर 2016

साहित्यश्री-6//2//जीतेन्द्र वर्मा

नोट का चोट
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खजाने का नोट।
दे गया चोट।
पल में धूल गए,
कई स्वप्न;कई सोच।
नोट का चोट,
उसको लगा गहरा।
बड़े - बड़े नोटों का,
जमाखोर जो ठहरा।
जो खेल रहे थे,
नकली नोटों से ।
घायल है आज,
नोटबंदी के चोटों से।
किसी की कमर टूटी,
किसी को आया मोच।
खजाने का नोट।
दे गया चोट।
पल में धूल गए,
कई स्वप्न; कई सोच।
जिसका लेनदेन खरा था,
वो खुश है।
छुपाकर तिजोरी भरा था,
उसे दुख है।
क्या चोट उसे,
जिसकी जिंदगी ही चोट है।
हाथो में निवाला हो बहुत है,
उनके जेबों में कहाँ नोट है।
पर लग गए ठिकाने,
बड़े-बड़ो का होश।
खजाने का नोट।
दे गया चोट।
पल में धूल गए,
कई स्वप्न;कई सोच।
निजात पाएंगे,जमाखोरी,टैक्सचोरी,
भ्रस्टाचारी और आतंकवाद से।
दिखेगा बैंको में , लेनदेन आज से।
पता चलेगा ;कि कौन?
कितना रकम रखा है।
नोट बंदी कर सरकार ने,
मुद्रा को कसा है।
साथ देना उचित है,
अनुचित है;देना दोष।
खजाने का नोट।
दे गया चोट।
पल में धूल गए,
कई स्वप्न; कई सोच।
जीतेन्द्र वर्मा "खैरझिटिया"
बालको(कोरबा)
9981441795
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