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शनिवार, 1 अक्तूबर 2016

साहित्यश्री-2//13//हितेश तिवारी

माना की ये नया जमाना है. पर बेजा कब्जे का इतिहास पुराना हैं
सुना है मैंने सबको यह कहते
इस पर रोक लगाना है। 
पर जिसकों मौका मिल जाएं
उसके लिए यें अनमोल खजाना है।
कुटिया से इमारत का सफर
पल भर में हो जाना है।
हमारे भू-माफियाओ का
धंधा पुराना है।
पर्यावरण बचाने हेतु
भू स्थानांतरण नियम बना ,जनता को संतोष दिलाना है।
पर आज इसका हनन तो
यूँ हो जाना है।
अब पर्या नहीं रहा
बंगलो का फसाना है।
राजनीति के दम पर खेल रहा जमाना है।
पर बेजा कब्जा का इतिहास पुराना है।
हितेश तिवारी
(धरोहर साहित्य समाज लोरमी)

साहित्यश्री-2//12//गोपाल चन्द्र मुखर्जी


मुक्तछन्द में निर्झरिणी
साबलील प्रबाहिता,
कुलु कुलु रवे नृत्यरता
सागर मिलने का आशा।
उद्यमी मानव सर्वग्रासा
कब्जा किया है मेरा किनरा,
वह तो उसका नही है
कौन उसे समझायेगा?
चरते रहे बछरे
खेलते रहे बच्चे,
बुढे बच्चो का निस्तारा
अभी बने है ताकतवर का कब्जा।
भूमि,है तो सरकारी -
लेकिन उसमे हुआ क्या!
हम करते है नेतागिरी
तुम जो दिए हो मुझे सत्ता।
इसे नही कहते है बेजाकब्जा
यह तो मेरा ताकत है बच्चा!
अतिक्रमणकारी हम नही -
हम तो सत्ता धारी,
वह, है अतिक्रमणकारी
जो है गरीव झोपरीधारी!
छोटासा किसान,
शासन को देता है लगान!
जमीन का वह टुकरा
पसन्द है मेरा,
अदा करुङा दाम
दिए नही, यह है मेरा अभिमान
कर लिया हूँ कुछेक कब्जा -
नाहि किया काम कच्चा,
मातहत का पकडे चरण
अब कौन कहेगा, इसे अतिक्रमण?
*********
( गोपाल चन्द्र मुखर्जी )
४४,सुरजमूखी ,
राजकिशोर नगर
बिलासपुर (छ.ग.)
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साहित्यश्री-2//11//महेश पांडेय "मलंग"

साहित्य श्री -2 के लिये मेरी रचना.
अतिक्रमण
उलट रहे सब समीकरण
चंहु ओर है अतिक्रमण.
गैया बेचारी का गोचर
लोगो ने है चर डाले
मरघट को घेर घार के
भुतों संग डेरा डाले.
इन जिन्दा भुतों को देख
हो रहा भय का संचरण
आने जाने के रस्तो को
बंद किया दबंगो ने.
ताल पाटकर उस पर भी
कब्जा किया लफंगो ने.
जनता की तो त्राहि त्राहि है
पशुओ का भी हो रहा मरण.
सब सरकारी जमीन हमारी
का कुछ नारा लगा रहे.
वोटो के लालच मे नेता
झुग्गी झोपडी बसा रहे.
लोकतंत्र की अन्धेरगर्दी का
है ये जीता जागता उदाहरण .
उलट रहे सब समीकरण
चंहु ओर है अतिक्रमण.
महेश पांडेय "मलंग"
पंडरिया कबीरधाम

शुक्रवार, 30 सितंबर 2016

साहित्यश्री-2//10//हेमलाल साहू

@बेजा कब्जा @
करै बेजा सभी कब्जा, आज स्वार्थी लोग।
सब दिये है काँट जंगल, फ़ैलते अब रोग।।
खूब पर्यावरण पर हम, किये अत्याचार।
आज देखो सभी कितने, हो गये लाचार।।
शुद्ध पानी खोजते है, नही मिलता आज।
साँस लेना हुआ दुर्भर, मर रहै वनराज।।
भूमि अपनी आज देखोे, बनी रेगिस्तान।
मंडराया काल देखो, बचे न अब जान।।
छोड़ बेजा सभी कब्जा, प्रकृति को मत छेड़।
रहे उज्ज्वल कल हमारा, तुम लगाओ पेड़।
सोच बदलो सभी अपनी, करे विनती हेम।
रखों रिश्ता अब प्रकृति से, करो उनसे प्रेम।
-हेमलाल साहू
ग्राम गिधवा, पोस्ट नगधा
तहसील नवागढ़, जिला बेमेतरा
(छत्तीसगढ़) मो. 9977831273

साहित्यश्री-2,//9//सुखदेव सिंह अहिलेश्वर

कुंडली छंद--
लालच सुरसा की बहन,लालच का सिर फोड़।
जीवन मूल्य कर सुरक्षित,बेजा कब्जा छोड़।।
बेजा कब्जा छोड़,करने जन जीवन भला।
हिसगा रूंधानी तोड़,नफरत की फसले जला।।
सुम्मत बिरवा लगा,समरसता मे चल चला।
बबूल के पेड़ मे,फल आम है कहां फला।।
रचना:--सुखदेव सिंह अहिलेश्वर"अंजोर"
गोरखपुर,कवर्धा
9685216602

साहित्यश्री-2//8//जगदीश "हीरा" साहू

धरती माँ अपनी, व्यथा सुना रही है ।
दिनों दिन बेजाकब्जा, बढ़ती जा रही है।।
गायें भटक रही, भूख मर रही है,
चारागाह के अभाव में ।
मनुष्यों की ग्रास बन गई भूमि,
आतताइयों के स्वभाव में।।
जिस राह से गुजर जाती थी गाड़िया,
आज हो गई इतनी सकरी।
गाड़ियों की जाना तो दूर की बात,
अब अटक जाये वहाँ बकरी।।
दुनिया में ये कैसी, विकास आ रही है।
दिनों दिन बेजाकब्जा, बढ़ती जा रही है।।
सड़कों पर गाय, भैंस,
बकरी, कब्जा जमा रहे हैं।
ऐसे चलते और चलाये जाते हैं,
जैसे रोड टैक्स पटा रहे हैं।।
स्कूल की छुट्टी के बाद स्कूल में,
बेजाकब्जा है जुआ और नशेड़ियों का।
तनिक भी दर नहीँ मन में,
सजा और बेड़ियों का।।
अब सब कुछ हथियाने की, बू आ रही है।
दिनों दिन बेजाकब्जा, बढ़ती जा रही है।।
महिला सरपंच के अधिकारों का,
बेजाकब्जा कर रहे हैं सरपंच पति।
नशे की लत में पड़े गुरूजी की,
पासबुक भट्ठी में है, परिवार की है दुर्गति।।
हमारी बहनों और बेटियों पर,
नजर गड़ाये हैं दुर्बुद्धि दुर्मति।।
बेजाकब्जा की अत्याचार, सर चढ़ती जा रही है।
दिनों दिन बेजा कब्जा, बढ़ती जा रही है।।
औरों को छोडो हमारा पूरा तन है,
बेजाकब्जा के वश में।
माया की फैलाई जाल,
शब्द, स्पर्श, गंध, रूप रस में।।
आओ मित्रों हम सबसे पहले,
स्वयं की बेजाकब्जा दूर करें।
मानव जीवन है अनमोल,
जग में मशहूर करें।।
मेरी कविता आप, सबको जगा रही है।
दिनों दिन बेजाकब्जा, बढ़ती जा रही है।।
जगदीश "हीरा" साहू (व्याख्याता पं.)
कड़ार (भाटापारा)२७९१६
9009128538

साहित्यश्री-2//7//*कन्हैया साहू "अमित"*

गाँव,गली और नगर, शहर,
अतिक्रमण का बढता कहर ।
चौंक चौपाल गलियाँ ये संकरे,
निजस्वार्थ में हुए अंधें बहरें।
उद्यान,मैदान ये स्कुल,गौठान,
ना छोङा चारागाह ना श्मशान।
धरती को मानें स्वयं की पूंजी,
अतिक्रमण इन्हें विकल्प सूझी।
जमीन सरकारी हो या आबादी,
हो गई उसी की जो झंङा गङा दी।
"पावर", पैसा, पहुँच, पकङ से,
मनमर्जी जो जमीन जकङ लें।
कौन बोलेगा,कौन अब सुनेगा,
सत्ता के आगे सभी यहाँ झुकेगा।
जमीन मिट्टी नहीं खरा सोना है,
मौका हाथों से स्वर्णिम क्यों खोना है?
बिजली,पानी झटपट पा जाऐं,
बेजा कब्जा जो ज्यादा जोर जमाऐं।
मौन है सत्ता,सरकारें छलती,
अतिक्रमण हटाओ ही कहती।
दृढ ईच्छा शासन नहीं दिखाती,
निरिह गरीब को ही ये सताती ।
शासक ही ये कुटील फरेबी है,
अतिक्रमण इनकी धनदेवी है।
***************************
*कन्हैया साहू "अमित"*
*शिक्षक* हथनीपारा~भाटापारा
जिला~बलौदाबाजार (छ.ग.)
********************************

गुरुवार, 29 सितंबर 2016

साहित्यश्री-2//6//आशा देशमुख

विषय अतिक्रमण (बेजकब्ज़ा)
आज प्रकृति के हर तत्वों पर मानव अतिक्रमण कर रहा है जिससे कई तरह की विपदायें धरती झेल रही है ,इन्ही भावो को इंगित करता मेरा ये गीत |
अतिक्रमण
थक गए अहिराज अब तो त्रस्त महि के भार से
हेतु क्या है युग समर की
नीति को समझें जरा,
मूक क्रंदन से निकलती
आह को सुन लें ज़रा ,
ज़लज़ला हँसता सृजन के दीनता व्यवहार से
थक गए अहिराज अब तो त्रस्त महि के भार से|
कण्ठ सूखे निर्झरी के
मेरु खंडित हो रहे,
पाखियों के नीड़ उजड़े
विपिन के दुख क्या कहे,
मूल सारे गुम हुए अब मानवी अतिचार से
थक गए अहिराज अब तो त्रस्त महि के भार से |
अनगिनत हैं जख्म भू पर
वैद्य शल्य न कर सके ,
हम लगाएं वृक्ष मरहम
घाव को कुछ भर सकें ,
शेष रब सर्जन करेंगे युग कल्प उपचार से
थक गए अहिराज अब तो त्रस्त महि के भार से |
**************************************
आशा देशमुख
एनटीपीसी जमनीपाली कोरबा

साहित्यश्री-2//5//चोवा राम "बादल"

विषय----- बेजा कब्जा
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बेजा कब्जा हो चुका, बचे न अब मैदान ।
गांव की नार शौच को,कित जावें श्रीमान ।
कित जावें श्रीमान ,इक कमरे का घरौंदा ।
शौचालय की बात , बड़े घाटे का सौदा ।
कह " बादल" बौराय ,लईकन खेलै छज्जा ।
पट्टा दे सरकार , करावत बेजा कब्ज़ा ।
(चोवा राम "बादल")

साहित्यश्री-2//4//गुमान प्रसाद साहू

विषय - बेजाकब्जा(अतिक्रमण)
गांव शहर सभी जगह में, बेजाकब्जा का डेरा है।
अपने स्वार्थ के चलते लोग, 
मंदिरों को भी घेरा है।
नदी नालो की जमीने, जानवरों के चारागाह की।
काट रहे हैं जंगल को भी, बिना किसी परवाह की।
सभी मे कब्जा किये बैठे हैं लोग, कहते हैं कि ये मेरा है।
वर्तमान में बची नहीं है जमीने, बस फाइलों में ही नक्शा है।
जगह हथियाने वालो ने तो, शमशान को भी नहीं बक्शा है।
अतिक्रमण के भेंट चढ़ रहा, आज पूरा देश मेरा है।
अतिक्रमण के मार सभी जगह, शहरीकरण का हवाला है।
सभी जगहो पर हो रहा बस, पैसे वालो का बोलबाला है।
बेजाकब्जा के जमीनों पर, सब नाम अपना उकेरा हैं।
गांव शहर सभी जगहो पर, बेजाकब्जा का डेरा है।
रचना :- गुमान प्रसाद साहू
ग्राम:-समोदा (महानदी)
मोबा.:- 9977313968
जिला:-रायपुर छग

साहित्यश्री-2//3//दिलीप कुमार वर्मा

अतिक्रमण (बेजा कब्जा)
ये उस दिन की बात है,जब हम छोटे छोटे थे।
गाँव गली भाठा टिकरा,बहुत बड़े और मोटे थे।।
घुमा फिरा खेला हमने,लम्बी दौड़ लगाई है।
बेजा कब्जा का ये राक्षस,जाने कहाँ से आई है।।
पहले घर-घर गायें होतीं,अब तो सारे बेच रहे।
चारा गाह तो खत्म हो गया,अतिक्रमण में देख रहे।।
बच्चे अब घर में रहते हैं,बड़े न बाहर जाते हैं।
कभी जो बाहर चले गए तो,उसी पाँव घर आते हैं।।
भाठा अब तो कहीं न दिखता,भर्री कहीं न दिखता है।
गली-गली अब सकरी हो गई,ताल तलैया बिकता है।।
शासन सबको पट्टे देती,सुविधा भी भरपूर है।
कुर्सी का सब खेल है साथी,जनता भी मजबूर है।।
क्या गाँव क्या शहर कहोगे,क्या राज्य क्या देश।
अतिक्रमण की भेट चढ़ गई,बदल गया परिवेश।।
अब ओ दिन भी आये गा,जब नजर बन्द हो जाएंगे।
मोबाईल में मिला करेंगे,घर में जीवन बिताएंगे।।
न सुधरा है न सुधरे गा,अपना भारत देश।
पग रखने को जमी न होगी,शायद यही सन्देश।।
दिलीप कुमार वर्मा
बलौदा बाज़ार

साहित्यश्री-2//2//जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"

अतिक्रमण
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अतिक्रमण जंगल में देखो,
अतिक्रमण नदी-नालों में।
अतिक्रमण राहों में देखो।
अतिक्रमण खेत मैदानों में।
इंच - इंच में इंसान,
ईमारत बना रहे है।
खाली जमीं को कुतर-कुतर,
दीमक सी खा रहे है।
लालची हो गया है इंसान,
ज्यादा की चाह में।
लाखो घर दुकान देखो,
बना लिये हैं राह में।
चलने को भी जगह,
कहाँ शेष बचीं है आज?
कल-कारखाने रोज बने,
बन रहे है होटल लाज।
जमीन के अंदर घर,
जमीन के ऊपर घर।
राह में गाड़ी गुजरती,
देखो आज छूकर घर।
खेतो की गत बिगड़ रहे है।
आबादी तेजी से बढ़ रहे है।
लूटकर धरती की अस्मत,
चाँद-तारो में चढ़ रहे है।
किस किस में करेगा कब्जा,
जाने उसकी नियत कैसी?
शैतान बन बैठा इंसान,
कर रहे है जग की ऐसी-तैसी।
चलते बुल्डोजर आय दिन,
अतिक्रमण तोड़ने को।
तब भी इंसान लगा हुआ है,
इंच - इंच जोड़ने को।
देखो पर निकल आये है,
दिवार दिन ब दिन बढ़ रहे है।
दिवारो की आड़ में इंसान,
बेधड़क अतिक्रमण कर रहे है।
निकल घर से,
भ्रमण में।
देख गाँव - शहर,
लिप्त है अतिक्रमण में।

जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"
बालको(कोरबा)
9981441795

साहित्यश्री-2//1//ज्ञानु मानिकपुरी "दास"

विषय -बेजकब्जा
~~~~~~~~~
गांव गांव,शहर शहर में बेजकब्जा देखो।
बड़े बड़े रसूखदारों की रुतबा देखो।
कहा गई चारागाह, नदी नाला दोस्तों
इन जमातों की बड़ी बड़ी मकाँ देखो।
सरकारी फ़ाईलो की रकबा देखलो
वर्तमान में जमीन कितना बचा देखो।
पैसा फेको तमाशा देखो "ज्ञानु"
होती राजनीती की पनाह देखो।
'जिनकी लाठी उनकी भैस' हकीकत है
जहाँ पाये वहॉ महल आलिशा देखो।
रोती है आँखों के संग मेरा कलम भी
लाचार,बेबस,मजबूर गरीब जनता देखो।
ज्ञानु मानिकपुरी "दास"
चंदेनी कवर्धा
9993240143