शनिवार, 4 मार्च 2017

साहित्यश्री-9//3//सुनिल शर्मा"नील"

"बसंत वापस आया है"
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अलसाई धरती में उमंग छाया है
ऋतुराज बसन्त वापस आया है
सर्दी सरक करके गायब हुई है
दिनकर के होठों लाली खिली है
धरती ने ओढ़ी पीली चुनर है
कलियों पे झूमे देखो भ्रमर है
विटप आम के बौरों से सजे है
कोयल कूको से पी को भजे है
प्रीत की बयार चले चहुओर है
मिलन को आतुर पोर-पोर है
मौसम में जैसे खुमार छाया है
पुष्पों ने गंध से चमन महकाया है
तितलियाँ झुंडों में मंडराने लगी है
खेतो में सरसों इठलाने लगी है
मोहल्ले में फाग के गीत सुनाते है
प्रेयसी को होली के दिन याद आते है
राधा भी लगाए है मिलन की आस
साँवरिया से मिलादे रे पावन मधुमास!2
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सुनिल शर्मा"नील"
थानखम्हरिया(छत्तीसगढ़)
7828927284
06/02/2017

साहित्यश्री-9//2//जीतेंद्र वर्मा"खैरझिटिया"

मन मोहे मधुमास
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पीपल पत्ते मंद पवन में,
उड़ रहे हैं फुर्र फुर्र।
आम लदे हैं बौरो से,
देखे लोग घूर घूर।
कूक कोयल की,
मदहोश कर जाये।
पात हिलाकर पवन,
बंसी खूब बजाये।
चंहुओर फिजा में,
रची हुई है रास।
मन मोहे मधुमास।
बगियन बीच बहार है।
फूले फूल हजार है।
तितली भौंरा मस्ती में झूमे,
धरा किये सृंगार है।
टेसू के लाल फूल,
खींचे फागुन की ओर।
ढोल,नगाड़े,मादर,झाँझ,
और फाग धुन की ओर।
लगे खास,जगाये आस।
फूलकर लाल पलास।
मन मोहे मधुमास।
मंद पवन दे,धीमी लहर,
नाचे नदी तलाब।
पांव उठाये नदी किनारे,
बगुला बुने ख्वाब।
तट के वट,मुखड़ा अपने,
देख रहे हैं जल में।
फूलो की महक,
चिड़ियों की चहक,
लुभाये पल पल में।
पेड़ गिराकर पत्ते,
ओढ़े नया लिबास।
मन मोहे मधुमास।
सरसो पीली।
अलसी नीली।
चना गेंहूँ,
रंग रंगीली।
नाचे अरहर,
गाये मसूर।
मटर गोभी,
निकले भरपूर।
बयार बजाये गीत,
नाचे इमली,बेल,बेर सारी।
आये है बसंत,
खुशी लेकर ढेर सारी।
सजे सुर्ख लाल में,
सेंम्हर छुए आकास।
मन मोहे मधुमास।
जीतेंद्र वर्मा"खैरझिटिया"
बालको(कोरबा)
9981441795

साहित्यश्री-9//1//सुखदेव सिंह अहिलेश्वर "अंजोर"

विषय:-मधुमास
विधा:-सरसी छंद
दुल्हन जैसी सजी धरा है,गगन सजा है खास।
स्वागत की बेला है नूतन,नया नया अहसास।
झूम रही है मन की डाली,जैसे हुयी प्रभात।
चिड़ियों की कलरव को सुनकर,जाग उठा हो रात।
तरुवर महक रहे हैं देखो,छाया नया उमंग।
नव रंगो से शोभित काया,बदल गया है ढंग।
कोयल कूक रही डाली पर,है मदमस्त बयार।
फूल हुयी आह्लादित सुनकर,भौंरो की गूँजार।
सिमट रही है तृप्त लतायें,मन तरुवर के संग।
नव जीवन की चाह बढ़ी है,चढ़ा प्रेम का रंग।
फूट रहे हैं रस की धारा,सराबोर हर आस।
नीरसता की भाव मिटाने,आया है मधुमास।
दूर पहाड़ों मे फिर जागा,परदेशी का प्यार।
सरहद को भी याद आ रहा,अपना घर परिवार।
यादों ने फिर करवट ली है,जागे हैं अरमान।
जीवन की उपहार समेटे,आया है मेहमान।
रचना:-सुखदेव सिंह अहिलेश्वर "अंजोर"
शिक्षक (पं.) गोरखपुर,कवर्धा
9685216602
28/02/2017

शनिवार, 11 फ़रवरी 2017

साहित्यश्री-8//5//सुखदेव सिंह अहिलेश्वर"अंजोर"

विषय:-ठिठुरन
विधा:- नवगीत
बात बाकी रह गयी ठिठुरन भरी उस रात की।
चल रही ठंडी हवा थी
हौसलों को तोड़ने।
जिन्दगी भी डट गयी थी,
साहसों को जोड़ने।
टूट पड़ना था उसे अब डर कहां थी मात की।
जिन्दगी कँप जग रही थी,
आसमाँ के छांव मे।
कोशिशें ठिठुरी पड़ी थी,
क्या शहर क्या गांव मे।
कौन जिम्मेवार था उस दुख भरी हालात की।
कौन समझाता रहा है?
मूल्य उसको वोट का।
कौन दिखलाता रहा है?
घांव उसको चोंट का।
दर्द जाता क्यों नही जैसे दरद हो वात की।
सर्द ठण्डी रात मे जब,
कँप रही थी जिन्दगी।
जुड़ गये थे हांथ समझो,
हो रही थी बंदगी।
हो रहा था भ्रम खुदा को खेद थी इस बात की।
ओज फैले सूर्य की अब,
चहचहाती शोर हो।
तोड़ने जंजीर तम की,
सुनहरी सी भोर हो।
राह तकती जिन्दगी अब इक नई शुरुवात की।
रचना:-सुखदेव सिंह अहिलेश्वर"अंजोर"
गोरखपुर,कवर्धा
9685216602

साहित्यश्री-8//4//श्री एस•एन•बी• साहब रायगढ़

विषय - ठिठुरन
साफ-स्वच्छ 
दूधिया चाँदनी के तले
नंगे बदन
सारी रात
गुजार देते हैं ।
कंपकंपाते
ठिठुरते तन
दूर-दूर तक गूँजती
जिनके दाँतों की कडकडाहट ।
वे बेजुबान
न जाने कितने
रतजगे किए ।
आज कौन ?
महसूस करता है
वह पीड़ा
पूस की
रात की
बर्फ सी जाडा ।
घड़ी दो घड़ी
अपनी तपती हाँथों को
जाडे के उस
कोने पर रखना
जहाँ गुजर जाती है
उन गरीबों की
उम्र सारी ।
श्री एस•एन•बी• साहब
रायगढ़

साहित्यश्री-8//3//जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"

ठिठुरन
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सर्द हवाओं की आगोस में,
खेल रही है,ठिठुरन।
सब में अपना रंग,
मेल रही है ,ठिठुुरन।
सूरज की किरणों से,
कराती है यारी।
खाने को कहती है,
गर्म चीज सारी।
कभी कहती है,
गर्म अंगारो के समीप बैठ जाओ।
तो कभी कहती है,
गर्म कपड़ो में ही ऐंठ जाओ।
ठंडी-ठंडी चीजो से लड़ाती है वो।
बिस्तर से बार- बार जगाती है वो।
पिलाती है गर्म पानी,
खिलाती है गर्म खाना।
थोड़े खफा है उनसे,
दादा-दादी,नानी-नाना।
आई है हर घर,
फलों सब्जियों का अम्बार लेकर।
सर्द हवाओ में,
अपना प्यार लेकर।
ठंडी हवा साँस उनकी।
ओस की बूंद लिबास उनकी।
धुंध-कोहरे,झिलमिल रौशनी,
घटती-बढ़ती आस उनकी।
पीली सरसो के फूलों से,
खेलती है ठिठुरन।
रबी फसलों में रंग,
मेलती है ठिठुरन।
झूलती है,बेर इमली,
के फलो के साथ।
उड़ती है पंछियों सी,
गाती है झरनो की
कल-कलो के साथ।
पौष में बढ़ जाती है,
हर सुबह-शाम और रात को।
मांघ में कहना चाहती है,
अपनी बची हर बात को।
उधर ससुराल सजने लगी है,
आम के बौरों से।
गुंजार है बगिया,
कोयली और भौरों से।
बारात लेकर ;बसन्ती हवा आई है,
संवारकर घर बन को।
डोली में बिठाकर,
ले जाने ठिठुरन को।।
जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"
बालको(कोरबा)
9981441795

साहित्यश्री-8/2//ज्ञानु'दास' मानिकपुरी

विषय-ठिठुरन
विधा-गीत
वो ठिठुरन और वो राते
-चलते सर्द हवाओं का झोंका,
जख्म देते नंगे बदन को।
कौन समझा इस दर्द को,
व्यथा नंगे पाँव छिले अंतर्मन को।
वो कलियां और वो कांटे
-हौसला पस्त हो जाता,
साहस भी थरथरा जाता।
होता टीस दिलको बहुत,
आँखे भी भरभरा जाता।
वो सिसकन और वो बातें
-ठंडी हवाओं को लपेटें ,
बदन पर चला जा रहा हूँ।
जिंदगी संवर जाये शायद,
जिंदगी को आईना दिखा रहा हूँ।
वो अड़चन और वो हालातें
-मौसम की मार कहू या,
किस्मत की मार कहू।
बिखर जाता हैं सपने या,
या अनजान सरकार(खुदा) कहू।
वो धड़कन और वो शांसे
वो ठिठुरन और वो रातें।
ज्ञानु'दास' मानिकपुरी
चंदेनी कवर्धा( छ.ग.)