शनिवार, 11 फ़रवरी 2017

साहित्यश्री-8/2//ज्ञानु'दास' मानिकपुरी

विषय-ठिठुरन
विधा-गीत
वो ठिठुरन और वो राते
-चलते सर्द हवाओं का झोंका,
जख्म देते नंगे बदन को।
कौन समझा इस दर्द को,
व्यथा नंगे पाँव छिले अंतर्मन को।
वो कलियां और वो कांटे
-हौसला पस्त हो जाता,
साहस भी थरथरा जाता।
होता टीस दिलको बहुत,
आँखे भी भरभरा जाता।
वो सिसकन और वो बातें
-ठंडी हवाओं को लपेटें ,
बदन पर चला जा रहा हूँ।
जिंदगी संवर जाये शायद,
जिंदगी को आईना दिखा रहा हूँ।
वो अड़चन और वो हालातें
-मौसम की मार कहू या,
किस्मत की मार कहू।
बिखर जाता हैं सपने या,
या अनजान सरकार(खुदा) कहू।
वो धड़कन और वो शांसे
वो ठिठुरन और वो रातें।
ज्ञानु'दास' मानिकपुरी
चंदेनी कवर्धा( छ.ग.)

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